ललितपुर-महामंडलेश्वर चंडीपीठाधीश्वराचार्य स्वामी चन्द्रेश्वर गिरि महाराज ने बताया कि श्री कृष्ण जन्माष्टमी का पर्व 6 सितम्बर बुधवार को मनाया जायेगा। उन्होंने बताया कि श्रीमद्भागवत,भविष्यादि सभी पुराणों के अनुसार भगवान श्री कृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि,बुधवार,रोहिणी नक्षत्र एवं वृष के चंद्रमा-कालीन अर्धरात्रि के समय हुआ था-
मासि भाद्रपदे,अष्टम्यां कृष्णपक्क्षे अर्द्ध रात्रके।
वृष राशि स्थितो चंद्रे,नक्षत्रे रोहिणी युते।।(भविष्यपुराण)
श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर्व के समय छहों तत्वो भाद्र. कृष्ण पक्ष,अर्धरात्रिकाल,अष्टमी तिथि,रोहिणी नक्षत्र एवं वृष का चंद्र और बुधवार या सोमवार की विद्यमानता (सम्मिलन) बड़ी कठिनता से प्राप्त होती है। अनेकों वर्षों में कई बार भाद्र.कृ.पक्ष अष्टमी की अर्द्धरात्रि को वृष का चंद्र तो होता है परंतु रोहिणी नक्षत्र नहीं होता।इसी पंचांग में प्रया:सप्तमीविद्धा अष्टमी को स्मर्तानां तथा नवमीविद्धा अष्टमी को वैष्णवानां लिखा होता है इस वर्ष 6 सितंबर 2023 को प्राय: सभी तत्वों का दुर्लभ योग मिल रहा है अर्थात 6 सितंबर को श्री कृष्ण जन्माष्टमी के दिन अर्धरात्रिव्यापिनी अष्टमी तिथि,बुधवार रोहिणी नक्षत्र एवं वृषस्थ चंद्रमा का दुर्लभ एवं पुण्य प्रदायक योग बन रहा है प्राय:यह सभी शास्त्रकारों ने ऐसे दुर्लभ योग की मुक्तकंठ से प्रशंसा एवं स्तुतिगान किया है यथा-निर्णय सिंधु अनुसार आधी रात के समय रोहिणी में यदि अष्टमी तिथि मिल जाए तो उसमें श्री कृष्ण का पूजार्चन करने में तीन जन्मो के पाप दूर हो जाते हैं-
‘रोहिण्यां- अर्द्धरात्रे च यदा कृष्णाष्टमी भवेत्।
तस्यांभ्यर्चनं शौरे: हन्ति पापं त्रिजन्मजम्।।
श्री कृष्ण जन्माष्टमी रोहिणी नक्षत्र के योग से रहित हो तो केवला और रोहिणी नक्षत्र युक्त हो तो जयंती कहलाती है जयंती में बुध या सोमवार का योग आ जाए तो वह अत्युत्कृष्ट फलदायक हो जाती है केवलाष्टमी और जयंती में अधिक भिन्नता नहीं है क्योंकि अष्टमी के बिना जयंती का स्वतंत्र रूप नहीं हो सकता।प्राचीन काल से ही अर्धरात्रि व्यापिनी अष्टमी में रोहिणी नक्षत्र के बिना भी व्रत उपवास किया जाता है परंतु तिथि योग के बिना रोहिणी में किसी प्रकार का स्वतंत्र विधान नहीं है।अतः श्री कृष्ण-जन्माष्टमी ही रोहिणी नक्षत्र के योग से जयंती बनती है एतदर्थ कहा गया है कि ‘रोहिणी गुणविशिष्टा जयंती’ विष्णु रहस्य का भी यह श्लोक (जयंती योग)की पुष्टि करता है-
अष्टमी कृष्णपक्षस्य रोहिणी ऋक्षसंयुता ।
भवेत्प्रौष्ठपदे मासि जयन्तीनाम सा स्मृता।।
अर्थात भाद्रपद कृष्णाष्टमी यदि रोहिणी से यह संयुक्त होती है तो वह जयंती नाम से जानी जाती है गौतमी तंत्र में भी इस संबंध में स्पष्टत: लिखा गया है कि भाद्रपद कृष्णाष्टमी यदि रोहिणी नक्षत्र और सोम या बुधवार से संयुक्त हो जाए तो वह जयंती नाम से विख्यात होती है जन्म-जन्मान्तरो के पुण्यसंचय से ऐसा योग मिलता है जिस मनुष्य को जयंती उपवास का सौभाग्य मिलता है उसके कोटि जन्मकृत पाप नष्ट हो जाते हैं तथा जन्म बंधन से मुक्त होकर वह परम दिव्य वैकुंठादि भगवद् धाम में निवास करता है-
अष्टमी रोहिणी युक्ता चार्धरात्रे यदा भवेत्।
उपोष्य तां तिथिं विद्वान् कोटियज्ञफलं लभेत्।।
सोमाह्णि बुधवासरे वा अष्टमी युता।
जयन्ती सा समाख्याता सा लभ्या पुण्य सचयै:।।
पद्मपुराण अनुसार भी जिन्होंने श्रवण(भाद्रपद)में रोहिणी,बुधवार या सोमवार युक्त अथवा कोटि कुलों की मुक्ति देने वाली नवमीयुक्त जन्माष्टमी का व्रत किया है वे प्रेतयोनि को प्राप्त हुए अपने पितरों को भी प्रेतयोनि से मुक्त कर देते हैं।
प्रेतयोनिगतानां तु प्रेतत्वं नाशितं तु तै:।
यै कृता श्रावणे(भाद्रे)मासि अष्टमी रोहिणीयुता।।
किं पुन: बुधवारेण सोमेनापि विशेषत:।
किं पुन:नवमीयुक्ता कुलकोटयास्तु मुक्तिदा।।
अस्तु सभी धर्म एवं निबंध ग्रन्थो में ऐसे दुर्लभ योग की विशेष महिमा कही है उपरोक्त शास्त्रवचनों के अनुसार 6 सितंबर,बुधवार को प्रातः ध्वजारोहण एवं संकल्पपूर्वक व्रतानुष्ठान करके (ओम नमो भगवते वासुदेवाय) #ओम कृष्णाय वासुदेवाय गोविंदाय नमो नमः# आदि मंत्र जप,श्री कृष्ण नाम स्तोत्र पाठ,कीर्तनादि तथा रात्रि को श्री कृष्ण बालरूप की पूजार्चन,ध्वजारोहण,झूला झूलन,चंद्रार्घ्यदान,जागरण कीर्तनादि शुभकृत्य करके करने चाहिए।रात्रि को 12:00 बजे गर्भ से जन्म लेने के प्रतीकस्वरूप खीरा फोड़कर एवं शंख ध्वनि सहित भगवान का जन्मोत्सव मनाएं। जन्मोत्सव के पश्चात् कपूरादि प्रज्वलित कर सामूहिक स्वर से श्री कृष्ण की आरती स्तुति करें फिर शंख में गंगाजल सहित दूध-जल,फल,कुश,कुसुम,गंधादि डालकर निम्न मंत्र द्वारा चंद्रमा को अर्घ्य देकर नमस्कार कर अर्घ्य देवें।।
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